जाहिर है, आपने इन्टरनेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यताओं को लेकर उठने वाले सवालों के बारे में सुना होगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जो बार-बार सुर्खियों में आता रहता है। आपके दिमाग में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर पारदर्शिता का राग अलापने वाली सरकार के मंत्री अपनी डिग्रियाँ सार्वजनिक क्यों नहीं करते?
आइए, इस प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमने वाली हर बात को शुद्ध हिंदी में, तथ्यों और तर्क के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं।
वह प्रश्न जो बार-बार उठता है: "डिग्री क्यों नहीं दिखाते?"
"मोदी डिग्री नहीं दिखाएंगे...स्मृति बारहवीं पास का प्रमाण नहीं दिखाएंगी? पारदर्शिता से भागती बीजेपी!" – यह वाक्य एक आरोप, एक सवाल और एक राजनीतिक दावे का मिश्रण है। इसके पीछे का भाव यह है कि जो नेता देश को चलाने का दावा करते हैं, उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी शैक्षणिक योग्यताओं के प्रमाण पत्र जनता के सामने रखें। यह माँग पारदर्शिता के सिद्धांत पर आधारित है।
लेकिन क्या वाकई यह मुद्दा इतना सरल है? या इसके कई और पहलू हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है?
पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले को देखते हैं। उनकी शैक्षणिक योग्यता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। विरोधी दलों का आरोप है कि उन्होंने अपनी मास्टर्स डिग्री (एम.ए.) के बारे में जो दावा किया है, उसके प्रमाण पत्र में विसंगतियाँ हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय और गुजरात विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ दस्तावेज़ों को लेकर सवाल उठाए गए हैं।
इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय ने अलग-अलग समय पर कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी डिग्रियाँ चुनाव आयोग को दाखिल कर दी हैं, जो सार्वजनिक दस्तावेज़ हैं। उनका कहना है कि यह एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा है जिसे बार-बार उछाला जा रहा है।
वहीं, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के मामले में, उन पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने नामांकन पत्र में शैक्षणिक योग्यता के बारे में गलत जानकारी दी। उनके बारे में कहा गया कि वे केवल बारहवीं पास हैं, हालाँकि उन्होंने अपने आप को "ग्रेजुएट" बताया था। इस मामले की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँची। स्मृति ईरानी ने अदालत में हलफनामा दिया और कहा कि उन्होंने कभी भी अपने आप को ग्रेजुएट नहीं बताया। अदालत ने उनके खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि शैक्षणिक योग्यता चुनाव लड़ने की योग्यता नहीं है।
कानूनी पक्ष: चुनाव लड़ने के लिए डिग्री ज़रूरी है क्या?
यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु सामने आता है। भारत के चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार, लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए किसी भी प्रकार की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है।
संविधान का अनुच्छेद 84 (क) और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 4 और 5 में सिर्फ़ इतना ही कहा गया है कि उम्मीदवार:
- भारत का नागरिक हो।
- कम से कम 25 वर्ष की आयु का हो (लोकसभा के लिए)।
- मतदाता सूची में उसका नाम दर्ज हो।
- अन्य सभी योग्यताएँ रखता हो (जैसे, सरकारी लाभ के पद पर न हो, आदि)। इसका मतलब साफ़ है: भारत की संसद में बैठने के लिए डिग्री नहीं, बल्कि जनता का विश्वास और समर्थन चाहिए। एक व्यक्ति चाहे पढ़ा-लिखा हो या नहीं, अगर जनता उसे अपना प्रतिनिधि चुनती है, तो वह संसद में पहुँच सकता है। इसलिए, कानूनी तौर पर, न तो श्री मोदी और न ही स्मृति ईरानी को अपनी डिग्री साबित करने की कोई बाध्यता है।
अब सवाल नैतिकता का उठता है। भले ही कानूनी ज़रूरत न हो, लेकिन क्या जनता का यह अधिकार नहीं बनता कि वह उस नेता के बारे में पूरी जानकारी रखे, जिसे वह सत्ता सौंप रही है? पारदर्शिता एक लोकतांत्रिक मूल्य है। जनता यह जानना चाहती है कि उनका नेता कौन है, उसका अतीत क्या है, और उसकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि क्या है।
इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि एक उच्च शिक्षित नेता शायद जटिल मुद्दों को बेहतर ढंग से समझ और सुलझा सकता है। विरोधी दल इसी नैतिक आधार पर सवाल उठाते हैं और पारदर्शिता की माँग करते हैं।
वहीं, दूसरी ओर, यह तर्क भी उतना ही मज़बूत है कि किताबी ज्ञान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण व्यावहारिक अनुभव, नेतृत्व क्षमता और देश के प्रति समर्पण है। भारत के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ औपचारिक शिक्षा से वंचित नेताओं ने अद्भुत कार्य किए हैं। स्वयं महात्मा गाँधी ने कहा था कि "जीवन जीने की कला स्कूलों में नहीं सिखाई जाती।"
क्या यह मुद्दा वास्तव में पारदर्शिता का है, या फिर एक राजनीतिक हथियार है? अक्सर देखा गया है कि जब विपक्ष को सरकार के खिलाफ कोई ठोस मुद्दा नहीं मिलता, तो योग्यता जैसे व्यक्तिगत मुद्दों को उछाला जाता है।
प्रधानमंत्री मोदी और स्मृति ईरानी लगातार चुनाव जीत रहे हैं। जनता ने बार-बार उन पर भरोसा जताया है। ऐसे में, उनकी योग्यता पर सवाल उठाना, कहीं न कहीं जनता के फैसले पर ही सवाल खड़ा करना है। क्या एक नेता की सफलता उसके कार्यों से आँकी जानी चाहिए या उसके डिग्री प्रमाणपत्र से?
स्मृति ईरानी जैसी नेता, जो एक टेलीविज़न अभिनेत्री से एक सफल राजनीतिज्ञ बनीं, उनके लिए व्यावहारिक अनुभव और जन-सम्पर्क की क्षमता ही उनकी सबसे बड़ी डिग्री है। क्या यह पर्याप्त नहीं है?
इस पूरे विवाद का सार यह है कि एक लोकतंत्र में अंतिम फैसला जनता का होता है। जनता नेता को उसके वादों, उसके कार्यों और उसके चरित्र के आधार पर चुनती है, न कि सिर्फ़ उसके प्रमाणपत्रों के आधार पर।
हाँ, पारदर्शिता का होना अत्यंत आवश्यक है। नेताओं को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह मुद्दा वास्तव में राष्ट्रहित में है? क्या देश की जनता को इससे कोई फर्क पड़ता है कि उनका नेता किस डिग्री का धारक है, जब तक कि वह देश का विकास कर रहा है, सुरक्षा सुनिश्चित कर रहा है और उनके जीवनस्तर में सुधार ला रहा है?
शायद, वक्त आ गया है कि हम "डिग्री-राजनीति" से ऊपर उठकर "विकास-राजनीति" पर ध्यान दें। एक नेता का काम ही उसकी सबसे बड़ी योग्यता होती है। और इस कसौटी पर, जनता ने बार-बार अपना फैसला सुना दिया है। अंततः, लोकतंत्र में जनता की आवाज़ ही सर्वोपरि होती है, और वही सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है।
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