हाल ही में, गुजरात हाईकोर्ट के एक आदेश ने सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में एक नई बहस छेड़ दी है। यह मामला है देश के प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक डिग्री से जुड़ा हुआ। कोर्ट ने कहा कि प्रधानमंत्री की डिग्री को सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया जाएगा। इस एक लाइन के आदेश ने कई सवाल खड़े कर दिए।
क्या यह फैसला सही है? क्या आम जनता को अपने नेता की योग्यता के बारे में जानने का अधिकार नहीं है? या फिर इस आदेश के पीछे कोई और ही कानूनी तर्क है? आइए, इस पूरे मामले को बारीकी से समझते हैं और जानते हैं कि आखिर कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा।
इस पूरे विवाद की जड़ें काफी पुरानी हैं। साल 2016 में, आम आदमी पार्टी (AAP) के नेता और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक डिग्री पर सवाल उठाए थे। इसके बाद, इस मामले ने एक कानूनी रूप ले लिया।
केजरीवाल पर प्रधानमंत्री मोदी ने दिए गए अपमानजनक बयानों के लिए एक आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया। इसी मानहानि की सुनवाई के दौरान, केजरीवाल की ओर से अदालत में एक याचिका दायर की गई, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री और उनके शैक्षणिक रिकॉर्ड को कोर्ट के सामने सबूत के तौर पर पेश करने का अनुरोध किया गया।
केजरीवाल का तर्क था कि चूंकि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया है, इसलिए उनकी डिग्री इस मामले का एक 'प्रासंगिक सबूत' है।
गुजरात हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति सैंडीप न. भट्ट की अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई की। कोर्ट ने अपने आदेश में केजरीवाल की इस मांग को खारिज कर दिया और स्पष्ट रूप से कहा:
"प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक डिग्री को सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जाएगा।"कानूनी नजरिए से इस आदेश का क्या मतलब है?
आमतौर पर, आम जनता में यह भ्रम हो सकता है कि कोर्ट ने प्रधानमंत्री की डिग्री को 'गोपनीय' घोषित कर दिया है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह आदेश एक बहुत ही विशिष्ट कानूनी संदर्भ में दिया गया है।1. प्रासंगिकता का सिद्धांत (Relevancy): भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, कोर्ट में केवल उन्हीं तथ्यों और सबूतों पर विचार किया जा सकता है, जो मामले से सीधे तौर पर जुड़े हों। कोर्ट का मानना है कि इस मानहानि मुकदमे का सम्बन्ध केजरीवाल के दावों या बयानों से है, न कि मोदी की डिग्री से। इसलिए, डिग्री को इस केस में एक 'अप्रासंगिक सबूत' माना गया।
2. मानहानि केस की प्रकृति: एक मानहानि केस में, सवाल यह होता है कि क्या बयान दिए गए थे, क्या वे गलत थे, और क्या उनसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा था। यह केस प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता की 'सच्चाई' या 'झूठ' को साबित करने के लिए नहीं चल रहा है।
3. पहले से उपलब्ध जानकारी: अदालत ने यह भी नोट किया कि प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री से संबंधित जानकारी पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में है। दिल्ली विश्वविद्यालय और गुजरात विश्वविद्यालय ने पहले ही आरटीआई (सूचना का अधिकार) के तहत इससे जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक किए हैं। इसलिए, इसे कोर्ट� में सबूत के तौर पर पेश करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है।
जनता के 'जानने के अधिकार' (Right to Information) पर क्या असर पड़ेगा?
यह एक अहम सवाल है। क्या यह आदेश आम नागरिक के 'जानने के अधिकार' पर पानी फेर देता है? जवाब है - नहीं।
सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI Act) 2005 एक अलग कानूनी प्रक्रिया है। कोई भी भारतीय नागरिक किसी भी सार्वजनिक प्राधिकरण से सूचना मांग सकता है, बशर्ते वह सूचना उस अधिनियम की धारा 8 और 9 में दी गई छूट के दायरे में न आती हो।
प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री से जुड़े दस्तावेज पहले ही दिल्ली यूनिवर्सिटी और गुजरात यूनिवर्सिटी द्वारा आरटीआई के तहत जारी किए जा चुके हैं। इसलिए, यह जानकारी पहले से ही जनता के लिए उपलब्ध है। गुजरात हाईकोर्ट के इस आदेश का आरटीआई कानून पर कोई असर नहीं पड़ता। यह आदेश सिर्फ एक विशेष मानहानि मुकदमे की कार्यवाही तक सीमित है।
निष्कर्ष: तो अब आगे क्या?
गुजरात हाईकोर्ट का यह आदेश एक कानूनी और प्रक्रियात्मक निर्णय है, न कि कोई राजनीतिक टिप्पणी। इसने मानहानि के मुकदमे की शुद्धता बनाए रखी है और इसे एक अलग विषय पर भटकने से रोका है। यह आदेश इस बात की याद दिलाता है कि अदालतें तथ्यों, सबूतों और कानून की सीमाओं के भीतर ही फैसला सुनाती हैं।
इस मामले ने एक बार फिर जनप्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता की पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में, जनता का यह अधिकार बनता है कि वह अपने नेताओं के बारे में हर पहलू को जाने। हालाँकि, इसकी प्रक्रिया संवैधानिक और कानूनी रास्तों से होकर गुजरनी चाहिए।
अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि यह आदेश मानहानि केस को मुख्य मुद्दे पर केंद्रित रखने की एक कानूनी कोशिश है, न कि किसी की योग्यता को छिपाने का एक रास्ता। जनता का जानने का अधिकार अभी भी बरकरार है, और प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता से जुड़े दस्तावेज पहले की तरह आरटीआई के जरिए मांगे जा सकते हैं।
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