जीएसटी का आठ साल का सफर: क्यों अब जाकर बदल रहे हैं टैक्स के नियम?
एक सवाल जो आठ साल से अनसुना किया जा रहा था, आखिरकार उठ खड़ा हुआ है। राहुल गांधी लगातार इस पर सवाल उठा रहे थे, आम जनता महसूस कर रही थी, छोटे व्यवसाय बोल रहे थे, मगर सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। अचानक अब, जीएसटी परिषद में ढील और दरों में संशोधन की बातें होने लगी हैं। सवाल यही है कि आखिर यह बदलाव अब क्यों?यह सवाल महज राजनीति का नहीं, बल्कि हर उस भारतीय का है जिसकी महीने की तनख्वाह से एक मोटा हिस्सा जीएसटी के नाम पर कट जाता है। वह किराने का सामान हो या फिर मोबाइल का बिल, हर चीज़ पर जीएसटी का बोझ हमारी जेब पर भारी पड़ता है।
जीएसटी: शुरुआती वादे और कड़वी हकीकत
जुलाई 2017 में जब जीएसटी (गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स) लागू किया गया, तो इसे ‘एक राष्ट्र, एक टैक्स’ के ऐतिहासिक सुधार के तौर पर पेश किया गया। कहा गया कि यह टैक्स ढांचा पारदर्शी होगा, करों के ढेरों स्तर (cascading effect) ख़त्म होगा, और महंगाई घटेगी। शुरुआत में कई वस्तुओं पर टैक्स दरें कम भी रखी गईं।लेकिन जल्द ही हकीकत का चेहरा बदलने लगा। टैक्स के पांच स्लैब (0%, 5%, 12%, 18%, 28%) एक जटिल व्यवस्था बन गए। एक छोटे व्यवसायी के लिए इन स्लैब में काम करना, रिटर्न भरना और अनुपालन करना मुश्किल होता चला गया।
दोहरी मार: जेब पर पड़ा डबल अटैक
आम आदमी पर इसके दोहरे प्रभाव हुए:2. छोटे उद्योगों का दम घुटना: जीएसटी की जटिल अनुपालन प्रक्रिया (compliance process) छोटे दुकानदारों और व्यवसायियों के लिए सिरदर्द बन गई। उन्हें महंगे सीए (CA) और सॉफ्टवेयर की जरूरत पड़ने लगी। इससे उनकी लागत बढ़ी और मुनाफा घटा। कम मुनाफा होने का मतलब था कम रोजगार, कम विस्तार और कई मामलों में व्यवसाय बंद होना।
बाजार vs सरकार: किसकी बात सही?
सरकार लगातार दावा करती रही कि अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है, जीडीपी बढ़ रही है। लेकिन, बाजार में जाने वाला हर शख्स इस झूठ को पहचान रहा था। बाजार में नकदी का प्रवाह कम था। लोग सिर्फ जरूरत का सामान खरीद रहे थे, शौक या लक्जरी पर खर्च करने की क्षमता नहीं बची थी। यह ‘डिमांड’ की कमी साफ दिख रही थी।सवाल उठता है कि अगर पैसा था ही नहीं, तो फिर अर्थव्यवस्था बढ़ कैसे रही थी? इसका जवाब है असमानता। पैसा था, लेकिन वह देश की आबादी के सबसे ऊपर के एक प्रतिशत अमीर लोगों की जेब में जा रहा था। बड़े कॉर्पोरेट घरानों का मुनाफा बढ़ रहा था, शेयर बाजार छलांगे लगा रहा था, लेकिन यह समृद्धि आम आदमी तक नहीं पहुँच रही थी। जीएसटी ने इस असमानता को और बढ़ावा दिया।
आखिरकार, अब बदलाव क्यों?
इस सवाल का कोई सीधा जवाब सरकार नहीं देगी, लेकिन तथ्य और परिस्थितियाँ स्पष्ट संकेत देती हैं:1. लोकसभा चुनाव 2024 का दबाव: यह सबसे बड़ा और स्पष्ट कारण है। आठ साल तक अनसुनी करने के बाद अचानक जनता की पीड़ा समझ में आना, चुनावी महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है। सरकार को लगता है कि जनता में जीएसटी को लेकर रोष है और इसे शांत करना जरूरी है।
2. आर्थिक मजबूरी: लगातार महंगाई और मांग में कमी ने अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया था। छोटे व्यवसाय, जो रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं, दबाव में थे। उन्हें राहत देना अब आर्थिक जरूरत बन गया था।
3. राजनीतिक विरोध की आवाज़ मजबूत होना: केवल एक नेता नहीं, बल्कि अर्थशास्त्री, industrial association, और आम जनता लगातार इस व्यवस्था की खामियों की ओर इशारा कर रही थी। इस आलोचना को अनदेखा करना अब मुश्किल होता जा रहा था।
निष्कर्ष: सुधार की उम्मीद या चुनौती का ढोंग?
जीएसटी अपने आप में एक अच्छा अवधारणा थी, लेकिन उसका क्रियान्वयन (implementation) दोषपूर्ण रहा। सवाल यह नहीं है कि सुधार हो रहे हैं, सवाल यह है कि क्या ये सुधार टिकाऊ और ईमानदार हैं? क्या यह सिर्फ चुनावी रणनीति है या फिर वास्तव में आम जनता और छोटे व्यवसायों की पीड़ा को समझा गया है?आने वाले समय में देखना होगा कि क्या जीएसटी के स्लैब वास्तव में सरल और कम किए जाते हैं या नहीं। क्या छोटे व्यवसायियों के अनुपालन का बोझ वाकई कम होता है? क्या आम आदमी की जेब पर真正 में राहत मिलती है?
आठ साल का इंतजार बहुत लंबा है। जनता की आवाज़ को सुनने के लिए सरकारों को चुनाव का इंतजार नहीं करना चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश में, जनता की भलाई ही सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए, न कि सिर्फ सत्ता की राजनीति।
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