यह वाक्य आज हर उस भारतीय की आवाज़ है जो महंगाई के बोझ तले दबा हुआ है। जुलाई 2017 में जब गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लागू किया गया था, तो इसे 'वन नेशन, वन टैक्स' के ऐतिहासिक सुधार के तौर पर पेश किया गया था। वादा किया गया था कि इससे महंगाई कम होगी, टैक्स ढांचा सरल होगा और आम आदमी को राहत मिलेगी। लेकिन आठ साल बाद, सवाल यही है कि क्या वाकई में ऐसा हुआ?
क्या सचमुच जीएसटी आम जनता के लिए एक वरदान साबित हुआ? या फिर यह हमारी जेबों पर एक और बोझ बनकर रह गया? आइए, तथ्यों और आंकड़ों की कसौटी पर इन सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं।
जीएसटी का वादा और हकीकत: एक बड़ा अंतर
जीएसटी से पहले का टैक्स ढांचा बेहद जटिल था। केंद्र और राज्यों के अपने-अपने अलग-अलग टैक्स होते थे, जिससे कारोबारियों के लिए अनुपालन कर पाना मुश्किल था। जीएसटी का मुख्य उद्देश्य इसी जटिलता को दूर करना, एक एकीकृत बाजार बनाना और टैक्स के दोहरे बोझ (कास्केडिंग इफेक्ट) को खत्म करना था।शुरुआत में, सैकड़ों वस्तुओं पर 28% जैसी ऊंची टैक्स दरें लागू की गईं, जिनमें कई रोजमर्रा की चीजें भी शामिल थीं। हालांकि, समय के साथ सरकार ने कई वस्तुओं की दरों में revision किया है, फिर भी आलोचकों का मानना है कि जीएसटी ने जनता पर कर का बोझ बढ़ाया है, खासकर मध्यम वर्ग और गरीबों पर।
टॉफी बनाम पराठा: सरकार क्यों दे रही है पुराने हिसाब की याद?
आजकल एक नया नैरेटिव चलाया जा रहा है। जीएसटी के आलोचनाओं का जवाब देते हुए, वर्तमान सरकार के नुमाइंदे अक्सर कांग्रेस के समय की टैक्स दरों की बात करते हैं। वे बताते हैं कि पुराने व्यवस्था में टॉफी जैसी मासूम चीज पर भी टैक्स का बोझ था।लेकिन सवाल यह है कि क्या पुराने व्यवस्था की गलतियों को नए व्यवस्था में दोहराना जायज है? जनता सरकार से पूछ रही है कि अगर पहले टॉफी पर टैक्स था तो आपने उसे हटाया क्यों नहीं? बल्कि, आपने तो पराठे जैसे साधारण भोजन पर 18% का टैक्स लगा दिया। क्या यह आम आदमी के खिलाफ एक बड़ा अन्याय नहीं है?
यह सवाल तब और भी मुखर हो जाता है जब हम बच्चों की पढ़ाई से जुड़ी चीजों पर नजर डालते हैं।
पेंसिल, इरेज़र और शार्पनर पर जीएसटी: शिक्षा पर टैक्स?
एक समय था जब पेंसिल, कॉपी, किताबों जैसी शैक्षिक वस्तुओं पर कोई टैक्स नहीं था या नाममात्र का टैक्स था। जीएसटी लागू होने के बाद, इन पर भी टैक्स लगाया गया। हालांकि कई वस्तुओं पर टैक्स दरें घटाई गई हैं, लेकिन शुरुआती वर्षों में बच्चों की पेंसिल और इरेज़र जैसी मासूम चीजों पर भी 12% या 18% का टैक्स देना पड़ा।यह सीधे-सीधे मध्यमवर्गीय परिवार की जेब पर चोट थी। क्या शिक्षा, जो एक बुनियादी जरूरत है, पर इतना भारी टैक्स लगाना उचित था? प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने कभी इस सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया।
आपकी जेब से गया कितना पैसा? एक ठोस हिसाब
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन आठ सालों में जीएसटी ने आपकी जेब से औसतन कितना पैसा निकाला? आइए एक साधारण सा हिसाब लगाते हैं।मान लीजिए एक मध्यमवर्गीय परिवार का महीने का खर्च ₹30,000 है। इसमें से अधिकतर चीजें - दाल, चावल, तेल, साबुन, शैम्पू, बिजली बिल, मोबाइल रिचार्ज, बच्चों की पढ़ाई का सामान, कपड़े - सभी 5%, 12%, 18% या 28% के स्लैब में आते हैं। औसतन, अगर हम 12% का भी टैक्स मान लें, तो इस परिवार ने सिर्फ जीएसटी के रूप में हर महीने लगभग ₹3,600 अदा किए।
अब इसे 12 महीने और 8 साल से गुणा करें:
₹3,600/महीना * 12 महीने = ₹43,200/साल
₹43,200/साल * 8 साल = ₹3,45,600
यानी, सिर्फ जीएसटी ने ही एक औसत मध्यमवर्गीय परिवार से आठ साल में तीन लाख पैंतालीस हज़ार रुपये से ज्यादा की रकम वसूली है। यह तो सिर्फ एक अनुमान है, वास्तविकता इससे कहीं ज्यादा हो सकती है।
यह रकम आपके बच्चों की फीस, एक नई कार की EMI, या फिर एक छोटे से शहर में घर के डाउन पेमेंट के बराबर है। यही वह 'हिसाब' है जो सरकार नहीं देना चाहती।
अब दरें घटाने का माहौल क्यों?
अचानक अब जीएसटी दरों में कमी की चर्चा क्यों हो रही है? क्या यह महज एक राजनीतिक चाल है या फिर आर्थिक मजबूरी?विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे कई कारण हैं:
1. महंगाई का दबाव: लगातार बढ़ती महंगाई ने जनता में गहरी नाराजगी पैदा की है। सरकार के सामने जनता का गुस्सा शांत करने का दबाव है।
2. चुनावी समीकरण: आने वाले चुनावों को देखते हुए सरकार जनता को राहत देकर अपनी छवि बनाना चाहती है।
3.अर्थव्यवस्था को गति देना: कुछ मान्यताओं के अनुसार, टैक्स दरें घटने से खपत बढ़ेगी, जिससे अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा।
निष्कर्ष: हिसाब मांगना जनता का अधिकार है
जीएसटी एक जटिल सुधार था और इसमें शुरुआती गड़बड़ियां होना स्वाभाविक था। लेकिन आठ साल बाद भी अगर सरकार पुराने regime के हवाले देकर अपना बचाव करती है, तो यह जनता के साथ अन्याय है।जनता का यह अधिकार बनता है कि वह सरकार से एक ठोस हिसाब मांगे। हमें यह जानने का right है कि हमारी कमाई का एक बड़ा हिस्सा टैक्स के नाम पर कहां जा रहा है और उसका हमें क्या लाभ मिल रहा है। टॉफी पर पुराने टैक्स की बात करने के बजाय, सरकार को यह बताना चाहिए कि आने वाले समय में वह हमारी जेब पर पड़ने वाले बोझ को कैसे कम करेगी।
क्योंकि अंततः, यही नहीं चल सकता कि "वन नेशन, वन टैक्स" का बिल आपके घर का "वन नेशन, वन बजट" खत्म कर दे।
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