हाल के महीनों में धनखड़ और प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के बीच मतभेदों की खबरें सुर्खियों में रहीं। सूत्रों के अनुसार, संसद के भीतर उनके कुछ फैसलों और टिप्पणियों से सरकार असहज महसूस कर रही थी। माना जाता है कि वे कई बार संसदीय प्रक्रियाओं में निष्पक्षता दिखाने की कोशिश कर रहे थे, जो कुछ सत्तारूढ़ दल के नेताओं को रास नहीं आई।
⚠️ क्या विचारधारा बनी टकराव की वजह?
धनखड़ अपने न्यायिक अनुभव और संवैधानिक समझ के कारण कई बार सरकार से अलग राय रखते नजर आए। विशेषकर उच्चतम न्यायपालिका पर दिए गए उनके बयान और विपक्ष को बोलने का पर्याप्त अवसर देने की उनकी नीति सत्ता पक्ष के लिए असुविधाजनक होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में, सत्ता के उच्च केंद्रों से उन्हें "इशारा" मिलने लगा।
🕵️♂️ क्या PMO से हुआ था सीधे संवाद?
सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने धनखड़ से कुछ "नरमी" की अपेक्षा की थी, विशेषकर संसद संचालन में। लेकिन जब वे अपनी स्वतंत्र कार्यशैली पर कायम रहे, तब हालात टकराव की स्थिति तक पहुंच गए। यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि उन्हें संकेत दे दिया गया था कि यदि वे "लाइनों के भीतर" नहीं रहेंगे, तो उन्हें पद छोड़ना होगा।
🗣️ विपक्ष की प्रतिक्रिया – “संवैधानिक संस्थाओं पर हमला”
विपक्षी दलों ने इस पूरे मामले को "संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमला" करार दिया है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और AAP जैसे दलों ने कहा कि यदि वास्तव में धनखड़ को दबाव में आकर इस्तीफ़ा देना पड़ा, तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद चिंता का विषय है।
🔍 अंदरूनी खेल – बीजेपी के भीतर ही असंतोष?
सूत्र बताते हैं कि बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेता भी धनखड़ की निष्पक्षता से असहज थे। वे चाहते थे कि उपराष्ट्रपति का पद सरकार के निर्णयों के समर्थन में एक “प्रशंसक” की तरह कार्य करे, न कि एक “संविधान संरक्षक” की तरह। यही कारण रहा कि पार्टी नेतृत्व ने विकल्प तलाशने शुरू कर दिए थे।
📜 आगे क्या? नया चेहरा कौन?
अगर इस्तीफ़ा आधिकारिक रूप से सामने आता है, तो नया उपराष्ट्रपति कौन होगा – यह सवाल राजनीतिक गलियारों में चर्चा का केंद्र बन गया है। कुछ नाम उभर कर सामने आ रहे हैं – जो पूर्णतः "सरकार समर्थक" छवि रखते हैं।
📢 निष्कर्ष – क्या लोकतंत्र सुरक्षित है?
धनखड़ जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति को यदि वास्तव में इस्तीफ़े के लिये मजबूर किया गया हो, तो यह भारतीय लोकतंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
वास्तविकता चाहे जो भी हो, इस घटना ने साफ कर दिया है कि आज के दौर में संवैधानिक पद भी राजनीतिक दबावों से अछूते नहीं रहे।
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